शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
कुछ सवाबित बन गए कुछ उन से सय्यारे हुए
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इक बिजली की कौंद हम ने देखी
मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त
ये दिल वो शीशा है झमके है वो परी जिस में
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
आँखों को फोड़ा डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
सफ़्फ़ाक इब्तिदा से वो बे-रहम है ग़लत
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
जलता है जिगर तो चश्म नम है
आता है यही जी में फ़रियाद करूँ रोऊँ
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
इधर से झाँकते हैं गह उधर से देख लेते हैं
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है