मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त
अल्लाह का क़दीम से है नाम बे-नुक़त
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ढूँढता है मुझे वो तेग़ लिए और मैं वहीं
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
जिस्म-ए-ख़ाकी को बनाया लाग़री ने ऐन-रूह
रखता है क़दम नाज़ से जिस दम तू ज़मीं पर
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं