समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
अज़ाब और तो क्या क़ब्र के फ़िशार में था
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इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
सल्तनत और ही माने रखती है
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
आए हो तो ये हिजाब क्या है
है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से