रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
मज़हब में आशिक़ों के रोज़-ए-वफ़ात भी है
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सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
ख़ाक-ए-बदन तिरी सब पामाल होगी इक दिन
किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और
आए हो तो ये हिजाब क्या है
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
मैं क्या जानूँ क़लक़ क्या चीज़ है पर इतना जानूँ हूँ