रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली
ब'अद-अज़ाँ ख़ल्क़ को 'मिर्ज़ा' से है और 'मीर' से फ़ैज़
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मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
कर्बला है ये गली क्या जो नहीं मिलता याँ
कटता हूँ मैं भी वो कि मिरी जिंस-ए-दिल को देख
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
इस मर्ग को कब नहीं मैं समझा
आसिफ़ुद्दौला-ए-मरहूम वो था शुस्ता-मिज़ाज