आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
इक उम्र से तेरा है सना-ख़्वान इधर देख
Anwar Masood
Wasi Shah
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Gulzar
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(242) Peoples Rate This
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
रही हमेशा तरक़्क़ी मिरी असीरी को
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए