आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
यानी हैं जहाँ हम वाँ इस्लाम नहीं होता
Faiz Ahmad Faiz
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मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
जाते जाते राह में उस ने मुँह से उठाया जूँही पर्दा
ख़्वारियाँ बदनामियाँ रुस्वाइयाँ
होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार
परेशाँ क्यूँ न हो जावे नज़ारा
इस गुलशन-ए-पुर-ख़ार से मानिंद-ए-सबा भाग
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म