जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
बाल ज़ुल्फ़ों के तिरी मुझ से कजी रखते हैं
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कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
आज पलकों को जाते हैं आँसू
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
मैं ज़ुल्फ़ मुँह में ली तो कहा मार खाएगा
है मौसम-ए-बहार का आग़ाज़ क़हर है
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी