जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
महर उस के वहाँ से उठ जावे
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मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
गर रहूँ शहर में हो दूद के बाइस ख़फ़क़ाँ
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
क्या जानिए किस किस को मैं याँ दी है अज़िय्यत
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें