मैं ज़ुल्फ़ मुँह में ली तो कहा मार खाएगा
चूमी जो भौं तो बोला कि तलवार खाएगा
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जाने दे टुक चमन में मुझे ऐ सबा सरक
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
कल पतंग उस ने जो बाज़ार से मँगवा भेजा
तू देखे तो इक नज़र बहुत है
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
बचा गर नाज़ से तो उस को फिर अंदाज़ से मारा
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में