दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
इक हौज़ है आईना-ए-नैरंग ज़मीं पर
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लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से