गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
फिर भी ये ऐब है इक तुम में कि हरजाई हो
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बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
राँझा यही कहता था इधर देखियो मजनूँ
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
मुझ से इक बात किया कीजिए बस
बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
दाग़-ए-पेशानी-ए-ज़ाहिद न गया जीते-जी
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
हरगिज़ किया न बाद-ए-ख़िज़ाँ का भी इंतिज़ार