बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
हम उँगलियों को अपनी इक दिन क़लम करेंगे
Wasi Shah
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Habib Jalib
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हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे
ग़ुबार-ए-दिल को में मिज़्गान-ए-यार से झाड़ा
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
हमें नित असीर-ए-बला चाहता है
सल्तनत और ही माने रखती है
ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
गह तीर मारता है गह संग फेंकता है
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो