जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
नहीं होतीं कभी इक शख़्स की तक़दीरें दो
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ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त
है माह कि आफ़्ताब क्या है
ग़ैर के घर तू न रह रात को मेहमान कहीं
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
नासेहा दूर हो चल मुझ से तू हिज्जे मत कर
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को