सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
जाइए शहर को पर छोड़िए सहरा क्यूँकर
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दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
कह गया कुछ तो ज़ेर-ए-लब कोई
हर-चंद कि वो जवाँ नहीं हम
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
ऐ फ़लक तुझ को क़सम है मिरी इस को न बुझा
हम ने भेजा तो है उस गुल को ज़बानी पैग़ाम
ग़ैर के घर तू न रह रात को मेहमान कहीं
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
क्या दख़्ल किसी से मरज़-ए-इश्क़ शिफ़ा हो
शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को