सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ
दिल ले चुके फिर इस में ये क्या क्या टटोलते हैं
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इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे
माइल-ए-गिर्या मैं याँ तक हूँ कि आज़ा पे मिरे
'मुसहफ़ी' फ़ारसी को ताक़ पे रख
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
मुद्दत से हूँ मैं सर-ख़ुश-ए-सहबा-ए-शाएरी
शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
बातों ने उस की हम को ख़ामोश कर दिया है
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं