नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
अब वो आँखें सूरत-ए-आईना हैं हैरत-परस्त
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क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
तीखे तो हो प सच कहो उस वक़्त क्या करो
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
मुसव्विरों ने क़लम रख दिए हैं हाथों से
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
सामने आँखों के हर दम तिरी तिमसाल है आज