तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ
फ़रेब-ए-चर्ख़ मत खाना कहीं, ये ख़्वान ख़ाली है
Javed Akhtar
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लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
सौ बार गया मैं उस के दर पर
साबित तू रह जफ़ा पे मैं क़ाएम वफ़ा पे हूँ
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ