लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
बात वो है जो तिरे दिल में जगह पाती है
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हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
ऐ 'मुसहफ़ी' तू और कहाँ शेर का दावा
जलता है जिगर तो चश्म नम है
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो