क़लक़-ए-दिल से हैं जैसे मिरे रुख़्सारे ज़र्द
फूल गेंदे के भी हों ऐसे न बेचारे ज़र्द
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जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
चाहूँगा मैं तुम को जो मुझे चाहोगे तुम भी
उस रश्क-ए-मह की याद दिलाती है चाँदनी
गर जोश पे टुक आया दरियाव तबीअत का
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
गए हैं यार अपने अपने घर दालान ख़ाली है
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं
ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
की आह हम ने लेकिन उस ने इधर न देखा