गए हैं यार अपने अपने घर दालान ख़ाली है
अगर तुम आ मिलो ऐसे में तो मैदान ख़ाली है
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सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
क्या नाज़ुकी बदन की उस रश्क-ए-गुल के कहिए
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी