इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
माशूक़ उम्र में है बहुत कम तो क्या हुआ
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मुश्ताक़ ही दिल बरसों उस ग़ुंचा-दहन का था
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
आह देखी थी मैं जिस घर में परी की सूरत
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है
मजनूँ कहानी अपनी सुनावे अगर मुझे
क़ैस मिले तो उस से पूछूँ क्या तिरे जी में आई दिवाने
जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता