नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
उस ने भी ज़ेर-ए-लब ही कुछ कुछ कहा समझ कर
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सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था
कब ख़ूँ में भरा दामन-ए-क़ातिल नहीं मालूम
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
जी से मुझे चाह है किसी की
सहव और सुक्र में रहते हैं तभी तो फ़ुक़रा
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है