सहव और सुक्र में रहते हैं तभी तो फ़ुक़रा
क्यूँकि आलम है अजब बे-ख़बरी का आलम
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चाक करता है अभी जामा-ए-उर्यानी को
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
यार रोते रहे सब रूह ने परवाज़ किया
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ