यार रोते रहे सब रूह ने परवाज़ किया
क्या मुसाफ़िर के तईं शिद्दत-ए-बाराँ रोके
Ahmad Faraz
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दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
है तिरी कू में ख़बर हश्र के हंगामे की
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
देखना कम-निगही कीजियो मत ऐ साक़ी
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
मेहनत पे टुक नज़र कर सूरत गर अज़ल ने