मेहनत पे टुक नज़र कर सूरत गर अज़ल ने
चालीस दिन में तेरा मीम-ए-दहाँ बनाया
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तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
देख उस को इक आह हम ने कर ली
ग़ैर के घर तू न रह रात को मेहमान कहीं
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम
दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा