जिस कू में हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
वो कूचा क्यूँके रू-कश-ए-चीन-ओ-चगिल न हो
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ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
माह की आँख जो रहती है लगी ऊधर ही
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं