जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती
तौसन-ए-उम्र की है इक सरपट
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क्या खींचे है ख़ुद को दूर अल्लाह
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
अज़-बस-कि जी है तुझ बिन बेज़ार ज़िंदगी से
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ