सौ बार गया मैं उस के दर पर
पूछा न किसी ने ये भी था कौन
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आता है यही जी में फ़रियाद करूँ रोऊँ
उस ने कर वसमा जो फ़ुंदुक़ पे जमाई मेहंदी
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
मिला है आशिक़ी में रुतबा-ए-पैग़म्बरी मुझ को
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
अब शीशा-ए-साअत की तरह ख़ुश्की के बाइस
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी