मिला है आशिक़ी में रुतबा-ए-पैग़म्बरी मुझ को
मैं उस से क्यूँ दबूँ मजनूँ नहीं कुछ इब्न-ए-अम मेरा
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रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
चले ले के सर पर गुनाहों की गठरी
हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दिनों चीज़
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
मंसूर ने न ज़ुल्फ़ के कूचे की राह ली
न समझो तुम कि मैं दीवाना वीराने में रहता हूँ
नज़र क्या आए ज़ात-ए-हक़ किसी को
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
जाते जाते राह में उस ने मुँह से उठाया जूँही पर्दा
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में