हैं यादगार-ए-आलम-ए-फ़ानी ये दोनों चीज़
उस की जफ़ा और अपनी वफ़ा लिख रखेंगे हम
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ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
कपड़े बदल के आए थे आग मुझे लगा गए
कुछ तो मिलता है मज़ा सा शब-ए-तन्हाई में
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
उस के दर पर मैं गया साँग बनाए तो कहा
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
धोया गया तमाम हमारा ग़ुबार-ए-दिल