लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
यानी नज़र में अपनी ख़ुश-गातियाँ हैं तेरी
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उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए
आता नहीं समझ में कि कहते हैं किस को इश्क़
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
शहवत उन से कौन सी सादिर हुई जो 'मुसहफ़ी'
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग