ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
कहें किस मुँह से हम ऐ 'मुसहफ़ी' उर्दू हमारी है
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आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
ग़म तिरा दिल में मिरे फिर आग सुलगाने लगा