अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
बह गई हैं कश्तियाँ इस बहर में लंगर समेत
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क़ासिद को उस ने जाते ही रुख़्सत किया था लेक
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
मज़े में अब तलक बैठा मैं अपने होंठ चाटूँ हूँ
वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
है तिरी कू में ख़बर हश्र के हंगामे की
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
चखी न जिस ने कभी लज़्ज़त-ए-सिनान-ए-निगाह
तू ने मुँह फेरा और उस का नूर सा जाता रहा
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह