और सरगर्म किया तेरी कशिश ने मुझ को
उतना मैं यार हुआ जितना वो बेगाना हुआ
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उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
'मुसहफ़ी' क्यूँके छुपे उन से मिरा दर्द-ए-निहाँ
ऐ 'मुसहफ़ी' उसे भी रखता है शाद जी में
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
बे-लाग हैं हम हम को रुकावट नहीं आती