कैसा ये दिन है जो नहीं लाता है रू-ब-शाम
कैसी ये शब है जिस की सहर ना-पदीद है
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बस हम हैं शब और कराहना है
मैं ने क्या और निगह से तिरे रुख़ को देखा
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
हमें नित असीर-ए-बला चाहता है
गली में उस की हुई हल्क़ याँ तक आसूदा
दिल्ली में अपना था जो कुछ अस्बाब रह गया
ले गया काजल चुरा दुज़्द-ए-हिना
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ