मैं तुझ को याद करता हूँ इलाही
तिरे भी दिल में होगी याद मेरी
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इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
अपनी ग़रज़ को आए थे वो रात 'मुस्हफ़ी'
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
ये क्या सुलूक किया तू ने मुझ से दस्त-ए-जुनूँ
इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ
काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
देख उस को इक आह हम ने कर ली
कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
ग़ज़ल ऐ 'मुसहफ़ी' ये 'मीर' की है
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम