मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
लेकिन इन दुज़्दीदा नज़रों को भी समझाया करो
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रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
बस तू ने अपने मुँह से जो पर्दा उठा दिया
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
किधर जाइए और कहाँ बैठिए
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी