मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब
अपने माशूक़ों से जो शख़्स जुदा रहते हैं
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इस रंग से अपने घर न जाना
दाग़-ए-दिल शब को जो बनता है चराग़-ए-दहलीज़
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
नमली और न दूदी है न मंशारी है
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना