ज़ि-बस ख़ून-ए-ग़लीज़ आँखों से आया
हुईं आख़िर बहम मिज़्गान-ए-तर बंद
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आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
काम क्या है प नहीं चाहती हिम्मत हरगिज़
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
आता है यही जी में फ़रियाद करूँ रोऊँ
शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ