ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
जिस के आने की ख़ुशी हो वो न आवे अफ़्सोस
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मसलख़-ए-इश्क़ में खिंचती है ख़ुश-इक़बाल की खाल
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
ये आँखें हैं तो सर कटा कर रहेंगी
सहराइयान-ए-पूरब क्या जानते हैं इस को
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
गो अब हज़ार शक्ल से जल्वा करे कोई
अपनी तो इस चमन में नित उम्र यूँही गुज़री
हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख