ख़्वाहिश-ए-वस्ल का मज़मूँ जो किसी सत्र में था
क्या कहूँ ख़त को मिरे पढ़ के वो क्या क्या उछला
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तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
सीने पे मेरे हर दम रखते हैं हाथ ख़ूबाँ
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
फ़िक्र-ए-सुख़न तलाश-ए-मआश ओ ख़याल-ए-यार
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
यार होता है मिरा लाला-अज़ार एक न एक