शायद कि किसी और से था वस्ल का वादा
मालूम हुआ ये तिरी बे-ज़ारी-ए-शब से
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मसलख़-ए-इश्क़ में खिंचती है ख़ुश-इक़बाल की खाल
मक़्सूद है आँखों से तिरा देखना प्यारे
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
तेरी ही ज़ात से तो है वाबस्ता ये तिलिस्म
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
तन्हा न वो हाथों की हिना ले गई दिल को
ये क्या सुलूक किया तू ने मुझ से दस्त-ए-जुनूँ
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा
उस रश्क-ए-मह की याद दिलाती है चाँदनी