एक नाले पे है मआश अपनी
हम ग़रीबों की है यही मेराज
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अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला
यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में
वो चहचहे न वो तिरी आहंग अंदलीब
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
मैं तुझ को याद करता हूँ इलाही
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
बस हम हैं शब और कराहना है
दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर
छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर
जानते आप से जुदा तुझ को