यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में
सुर्ख़ी बदन की जैसे छलके बदन की तह में
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इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
गर ये आँसू हैं तो लाख आवेंगे दरिया जोश में
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
दिल ले गया है मेरा वो सीम-तन चुरा कर
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
छेड़े है उस को ग़ैर तो कहता है उस से यूँ
कर के ज़ख़्मी तू मुझे सौंप गया ग़ैरों को
क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
सुख़न में कामरानी कर रहा हूँ