ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह हैफ़ कि अच्छा न हुआ
करने को उस की दवा डॉक्टर अंग्रेज़ आया
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कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
'मुसहफ़ी' शिर्क भी ऐसे का नहीं यार बुरा
बात को मेरी अलग हो के न शरमाओ सुनो
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
मुझ को पामाल कर गया है वही
मय पीने से वो आरिज़ क्या और हो गए थे