जानते आप से जुदा तुझ को
करते गर फ़र्क़ जिस्म ओ जाँ में हम
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यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला
आलम से हमारा कुछ मज़हब ही निराला है
औरों की तरफ़ तू देखता है
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना