मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
हम छेड़ छेड़ कर उसे लाए सुख़न के बीच
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कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
इश्क़-ए-फ़ुज़ूँ में मेरे न हो दोस्तो कमी
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
'मुसहफ़ी' इस से भी रंगीं ग़ज़ल इक और लिखी
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
कर के ज़ख़्मी तू मुझे सौंप गया ग़ैरों को
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
उस गुल का पता गर नहीं देते हो तो यारो
नक़्शा है उन की चश्म में लैला की चश्म का
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे