मैं अजब ये रस्म देखी मुझे रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे और वही ले सवाब उल्टा
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मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
हसरत पे उस मुसाफ़िर-ए-बे-कस की रोइए
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है
तू छोड़ अब तो असीर-ए-क़फ़स को ऐ सय्याद
कहीं देखा है इस हैअत का माशूक़
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
दामन-कशाँ वो जाए था सैर-ए-चमन को और
तड़ावे के लिए है ख़्वान पोश महर-ओ-मह नादाँ