इक दिन तो लिपट जाए तसव्वुर ही से तेरे
ये भी दिल-ए-नामर्द को जुरअत नहीं मिलती
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अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
कह गया कुछ तो ज़ेर-ए-लब कोई
गो ज़ख़्मी हैं हम पर उसे क्या ग़म है हमारा
आज की शब गर रहेंगे 'मुसहफ़ी' बैरून-ए-दर
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
वाँ लाल फड़कता है अमीरों के क़फ़स में
पीछे फिर फिर देखता जाता हूँ और भागूँ हूँ मैं
यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
पढ़ न ऐ हम-नशीं विसाल का शेर